!कविवर कबीरदास जी कहते हैं कि मनुष्य की इच्छा, उसका ऐश्वर्य अर्थात धन सब कुछ नष्ट होता है यहां तक की शरीर भी नष्ट हो जाता है लेकिन फिर भी आशा और भोग की आस नहीं मरती।कबीरदास जी के इस दोहे से हमें यह सीख मिलती है कि हमें अपनी इच्छाओं पर नियंत्रण रखना चाहिए क्योंकि वे कभी खत्म नहीं होती और धन के पीछे हद से ज्यादा नहीं भागना चाहिए क्योंकि एक दिन यह सब नष्ट हो जाता है।अगर आप भी एक सच्चा इंसान बनना चाहते हैं और अपनी जिंदगी में सफलता हासिल करना चाहते हैं और खुशी से अपनी जिंदगी काटना चाहते हैं तो आप कबीरदास जी के ऊपर लिखे गए दोहों से सीख लेकर अपनी जिंदगी में काफी बदलाव कर सकते हैं और एक ऐसे इंसान बन सकते हैं जिससे दूसरे भी आपसे प्रेरणा ले सकें।गुरु का हर किसी के जीवन में बहुत महत्व है। गुरु के बिना ज्ञान असंभव है अर्थात इसकी महत्वत्ता की वजह से ही गुरु को ईश्वर से भी ऊंचा पद दिया गया है। गुरु को ईश्वर के अलग-अलग रुप बह्रा-विष्णु एवं महेश्वर का रुप भी माना गया है क्योंकि गुरु, अपने शिष्य को न सिर्फ ज्ञान देता है बल्कि एक नया जीवन देता है और उसकी रक्षा करता है।यही नहीं गुरु के महत्व का वर्णन शास्त्रों में किया गया है। पुराने समय में  ऋषि-मुनि से अपने शिष्यों को शस्त्र विद्या, दर्शनशास्त्र और साहित्यिक ज्ञान देकर उनका मार्ग दर्शन करते थे साथ ही समाज के विकास का बीड़ा भी उठाते रहे हैं।गुरु शब्द दो अक्षरों से मिलकर बना है- ‘गु’ का अर्थ होता है अंधकार (अज्ञान) एवं ‘रु’ का अर्थ होता है प्रकाश (ज्ञान)। अर्थात गुरु हमें अज्ञान रूपी अंधकार से ज्ञान रूपी प्रकाश की तरफ ले जाते हैं। इसके साथ ही गुरु ही इंसान की जीवन की ज्योति जगाता है और गुरु,सद्मार्ग की राह दिखता है।  गुरु,भवसागर के सागर से तारना सिखाता है।इसलिए हिन्दी साहित्य के महान कवि कबीर दास जी ने अपने कुछ दोहे के माध्यम से गुरु और शिष्य के संबंध को बेहद सुंदर और सरल तरीके से समझाया है, इसके साथ ही उन्होंने गुरु का स्थान सबसे ऊंचा बताया है।वर्तमान में गुरु-शिष्य के रिश्ते की परिभाषा ही बदल गई है लेकिन फिर भी इस दोहे के माध्यम से हिन्दी साहित्य के महान कवि कबीर दास जी ने गुरु से ज्ञान प्राप्त करने के लिए लोगों को प्रेरित किया है और ऐसे मूर्खों को सीख दी है।जो गुरुओं को कुछ नहीं समझते हैं और अपने घमंड में चूर रहते हैं जिन्हें बाद में निराशा ही हाथ लगती है और वे अपने जीवन में सफलता हासिल नहीं कर पाते हैं।इस दोहे में कबीरदास जी ने यह बताया है कि अपने सिर को दान में देकर गुरु से ज्ञान प्राप्त करो, लेकिन यह सीख न मानकर कई लोग अपने शरीर, धन समेत कई चीजों के घमंड में चूर होकर इस संसार से चले गए, जिन्हें कभी ज्ञान की प्राप्ति नहीं हुई है अर्थात उनके गुरुपद- पोत में नहीं लगे।कबीरदास जी के इस दोहे से हमें यह सीख मिलती है कि हमें अपने घमंड में नहीं रहना चाहिए और अपने गुरु से ज्ञान प्राप्त करना चाहिए क्योंकि ज्ञान के बिना इंसान का जीवन असंभव है।वर्तमान में गुरु और शिष्य के रिश्ते में काफी बदलाव आ गया है। न ही अब गुरु, अपने शिष्य की भलाई और उसके रक्षा के बारे में सोचता है और न ही शिष्य अपने गुरुओं को उतना सम्मान देते हैं जितना कि उन्हें देना चाहिए ऐसे ही लोगों के लिए संत कबीर दास ने इस दोहे में बड़ी सीख दी है जो अपने गुरुओं की आज्ञा का पालन नहीं करते हैं और न उन्हें सम्मान देते हैं।इस दोहे में कबीरदास जी ने यह कहा है कि व्यवहार में भी किसी साधु को गुरु की आज्ञा का पालन करना चाहिए और गुरु के मुताबिक ही आना-जाना चाहिए अर्थात सद् गुरु के कहने का तात्पर्य यह है कि संत वही है जो जन्म- मरण से पार होने के लिए कठोर साधना करता है।हिन्दी साहित्य के महानकवि कबीरदास जी के इस दोहे से हमें यह सीख मिलती है कि हमें अपने गुरु की आज्ञा का पालन करना चाहिए क्योंकि जो लोग गुरु के अनुसार चलते हैं उनकी जीवन की नैया पार लग जाती है।कलियुग में भले ही गुरु की परिभाषा बदल गई हो लेकिन महत्व तो गुरु का आज भी उतना ही है। महान संत कबीरदास जी ने अपने इस दोहे के माध्यम से यह बताने की कोशिश की है कि गुरु अपने शिष्य को किस तरह से अपने गुर सिखाकर उसे महान बनाता है।इस दोहे में संत कबीर दास जी ने गुरु और पारस पत्थर की तुलना करते हुए कहा है कि यह सब सन्त जानते हैं कि पारस तो लोहे को सोना ही बनाता है, लेकिन गुरु वो होता अपने शिष्यों को महान बनाता है।संत कबीर दास जी के इस दोहे से हमें यह सीख मिलती है, हमें अपने गुरुओं की इज्जत करनी चाहिए क्योंकि गुरु ही अपने शिष्यों को महान बनाता है और उनका मार्गदर्शन करता है।I like all done . The real meaning of it is that Kabir cries while watching the duality in this world i.e. #1. 16:33.
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